शुक्रवार, 12 जून 2015

चलिए सांसों को मिली कुछ राहत

थोड़ी राहत है आज। दरअसल अभी जहां रह रहा हूं, उसके करीब ही नया ठिकाना मिल गया किराए का। शाम को एडवांस भी दे दिया जाएगा। इसके बाद फौरी तौर पर सिरदर्द खत्म। बाबू जी कल पूछ रहे थे कि बेटा मकान मिला कि नहीं। मैंने बताया तलाश जारी है। उम्मीद है कि कुछ हो जाएगा। सात हजार प्लस बिजली। यानि आठ हजार रुपये में यह मकान पड़ेगा। हर दिन लगभग तीन सौ रुपये में कुछ देर के लिए छत मयस्सर होगी। करेंगे क्या? 
मकान मालिक मुस्लिम हैं। पढे़-लिखे सुशिक्षित। आज सुबह मिलने गया था। बिस्कुट, नमकीन व शरबत से खैरमकद्दम किया। मैंने अपने खानाबदोशी की दास्तां सुनाई। आयुष (छोटे चिरंजीव) भी थे साथ। उनकी भावभंगिमा से लग रहा था कि उन्हें दर्द-ए-दास्तां सुनाया जाना अच्छा नहीं लग रहा था, लेकिन मैंने सोच रखा है कि जैसा भी हूं, साफ -साफ बता दूं। धन्ना सेठ होता तो क्यों कर किराए पर होता। करीब 20 साल के  पत्रकारीय करियर के बाद भी। बताया कि जबलपुर से सफर शुरू किया था, भोपाल, वाराणसी, सोनभद्र, बलिया, इलाहाबाद, रांची, जबलपुर होते हुए फिर वाराणसी और अब इलाहाबाद में पहुंचा हूं। दो साल कम से कम और रहना चाहता हूं यहां जब तक कि आयुष अर्नी मेमोरियल स्कूल से हायर सेकेंड्री न कर लें, अपने मनचाहे विषय से। मकान मालिक खान साहब ने 11 महीने का एग्रीमेंट कर ले रहे हैं, बाद में रिश्ता हमारे व्यवहार पर चलेगा। मैंने कहा ठीक है, उम्मीद है कि अच्छा ही रहेगा। आज तक जहां भी रहा हूं, एकाध अपवाद को छोड़ कर रिश्ता ठीक ही रहा है मकान मालिकों से। सोनभद्र में स्व. महेंद्र प्रताप सिंह के घर तो  जैसा आत्मीय संबंध बना, उसे शब्दों से नहीं बांधा जा सकता। वाराणसी में उमापति यादव जी के घर भी ऐसा ही रहा। उनकी पुत्री शिवानी तो आयुष की बुआ जैसी है। रहेगी हमेशा। उसने अस्पताल में उसकी पाटी साफ की है, कौन करता है भला ऐसा। अहसानमंद रहूंगा मैं उस परिवार का आजीवन। 
गुजरी रात टिवटर पर था। हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक ट्वीट दिखा। सबको आवास के लिए उन्होंने बैठक की थी अफसर व मंत्रियों संग। मैंने रिप्लाई ट्वीट से लिखा है कि मैं भी कुछ सुझाव देना चाहता हूं डाक से यदि अनुमति हो तो। अभी तक वहां से हरी झंडी नहीं मिली है। यदि मिलती है तो यही कहूंगा कि पहले उन लोगों का रजिस्ट्रेशन करा लें जो बिना छत के हैं शहरों में। संख्या पता चल जाए तो बिल्डरों के साथ बैठक कर लें। बता दें कि इतने आवास चाहिए। फिर लोगों की आर्थिक सामर्थ्य के मुताबिक ईडब्लयूएस, एलआइजी, एमआइजी, जूनियर एमआइजी जैसे आवास बनवाए जाएं। हम जैसे लोगों का जिनका पीएफ है थोड़ा बहुत उसे सिक्योरिटी मनी के रूप में रख लिया जाए। जो किराया हम दूसरों को देते हैं वह मकान के मद में दें। जब लागत चुका दें तो उसे हमारे अथवा हमारी संतानों के नाम कर दिया जाए। ऐसे में कम से कम चार सदस्यों वाले परिवार को एक छत तो सुलभ हो ही जाएगी।  

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

तीन तिकड़म क्यों नहीं आता

लगभग डेढ़ महीने बाद ब्लाग पर कुछ नया पोस्ट कर रहा हूं। इस बार मन में राहत है, कहीं काम -धाम से जुड़े होने की राहत। चाहत है माली व सामाजिक हालात में बेहतरी की। उम्मीद है कि बाबा विश्वनाथ की कृपा बनी रहेगी तो मंजिल पाने में आसानी होगी। फिलहाल यह तो नहीं बता सकता कि मंजिल क्या है,क्योंकि जून से 20 जुलाई 2010 के अनुभवों ने तमाम मुगालतों को तार-तार कर दिया है। आप क्या लिखते हैं, क्या पढ़ते हैं, क्या बोलते हैं, मौजूदा दौर में शायद इसका कोई मतलब नहीं है। खास तौर पर पत्रकारिता में, वह भी हिंदी की पत्रकारिता में। मेरे एक शुभचिंतक कहते हैं कि जो काम जानता है, वह राजनीति नहीं करेगा और राजनीति नहीं कर सका तो पत्रकारिता में टिक नहीं सकेगा। उनकी बात में दम है। खुद को आज जिस जगह देखता हूं तो सोचता हूं कि मैंने होशियारी क्यों नहीं सीखी। सरल -सहज होना आज के दौर में निरा मूर्खता है, इसलिए सहज सरल होने की सलाह किसी को नहीं दूंगा। तीन -तिकड़म आना चाहिए। सफलता के लिए यह जरूरी है।
खैर, चलिए अब नए पते ठिकाने के बारे में बता दूं। दैनिक जागरण वाराणसी में मुझे पनाह मिली है, यहां जनरल डेस्क पर तैनाती दी गई है। भऱपूर कोशिश कर रहा हूं कि उम्मीदों पर खऱा उतरूं। जागरण में एक चीज बहुत अच्छी लगी है वह है इंटरनल काम्पटीशन। ले-आउट, हैडिंग, फोटो औऱ एक्सक्लूसिव न्यूज पर गोल्ड- सिलवर और ब्रांज मैडल का सिस्टम है, रोजाना। मैं चाहता हूं कि मेरी यूनिट के खाते में अधिक से अधिक गोल्ड मैडल आएं। इसके लिए अपना शत प्रतिशत दूंगा।

बुधवार, 7 जुलाई 2010

हौसला अफजाई के लिए शुक्रिया

शुक्रिया साथियों। अवसाद के इन दिनों में हौसला अफजाई के लिए। हर जगह चीजें तेजी से बदल रही हैं, पर नहीं बदली है तो अपनी किस्मत। योग्यता जैसी किसी चीज की हमारी इंडस्ट्री (प्रिंट या इलेक्ट्रानिक मीडिया) में पूछ परख होती तो जाने कितने गधे पंजारी न खा रहे होते और घोड़ों को घास के लिए तरसना पड़ता, करेंगे क्या। शायद इसी को प्रारब्ध कहते हैं। फिल्म संगम में दिलीप कुमार पर फिल्माया गया यह गाना आजकल मैं अक्सर गुनगुनाता हूं- मेरे पैरों में घुंघरू पहना दे तो फिर मेरी चाल देख ले, दुर्भाग्य से पैरों में घुंघरू पहिनाने वाला कोई नहीं है। जो घुंघरू बांध सकते हैं उन तक मेरी बदकिस्मती मुझे पहुंचने नहीं देती। एकाध जगह पहुंचा भी तो बात सीवी पोस्ट कर दीजिए, देख लेंगे, जैसी बातें हुईं। यहां एक प्रसंग का उल्लेख कर रहा हूं, इससे आप मेरी हालत का अंदाजा लगा सकते हैं। देश के एक बड़े मीडिया घराने में नौकरी के मेरे आवेदन पर विचार हुआ, चार दिन के टेस्ट के बाद कहा गया कि सीटीसी पर कंप्रोमाइज कर लूं, मैंने अपने उस शुभचिंतक पर जिसने मुझे चार दिनों तक ट्रायल का मौका दिलवाया था, पर ही सीटीसी तय करने का मामला छो़ दिया। मेरे शुभचिंतक ने अगली सूचना दी कि यार, दो हजार रुपये कम पर मान जाओ, मैं मान गया। फिर इसी शुभचिंतक ने कहा -पहली जून से ज्वाइन करना है, मैंने राहत की सांस ली, लेकिन पहली जून से चार दिन पहले ही मेरे इसी शुभचिंतक ने अवगत कराया कि यार, बड़े साहब ने मामला नए सिरे से देखने की बात कह दी है। बड़े साहब को मेरा मामला देखने का वक्त आज आठ जुलाई तक नहीं मिला। अब ताजी सचूना यह है कि बड़े साहब ने कहीं मेरा जिक्र उठने पर यह कह दिया-मुझे जंचा नहीं होगा। गजब है जिस महान संपादक ने ना मेरा काम देखा ना मेरा चेहरा, उसने मुझे यूं ही खारिज कर दिया, उसे मैं क्या कहूं। बीवी कहती है कि जहां तहां तुमने बता दिया था, उन्हीं में से किसी ने भांजी मार दी होगी, हो सकता है, वह सच कह रही हो.

मंगलवार, 22 जून 2010

दौर-ए आश्वासन

आज लगभग एक महीने बाद कुछ लिख रहा हूं। शायद एक घंटे में तमाम बातें सहेज नहीं पाऊं,लेकिन कोशिश तो करूंगा। सबसे पहले बता दूं कि 21 मई से 22 जून 2010 के बीच यात्राएं खूब हुईं।भोपाल, वाराणसी, अजमेर,लखनऊ, बरेली और नोएडा-दिल्ली। मकसद एक ही था-रोजगार पाना। दुर्योग कह लें या संयोग मनमाफिक नौकरी भर नहीं मिली, उपदेश और आश्वासन खूब मिले। एक बड़े अखबार के प्रभावशाली संपादक ने आश्वासन दिया कि दो दिन में कुछ ना कुछ जरूर हो जाएगा, वह दो दिन महीने भर से नहीं आया है, एक शुभचिंतक ने कहा, बस निशिंचत रहिए, हफ्ते भर में मामला सेटल हो जाएगा, मैं उस हफ्ते का इंतजार कर रहा हूं। एक यशस्वी संपादक की इस बात से जरूर ढांढस बंधा है कि वह तो आठ माह खाली बैठे थे। मेरे एक पत्रकार मित्र ने कहा, बंधु मैं तो 10 माह खाली बैठा था, लेकिन जब नौकरी की तो वहीं की जहां के लिए ठान ली थी। मैं भी सोचता हूं कि कहीं के लिए ठान लूं, पर ऐसा कर नहीं पाता। इसकी वजह परिवार की जरूरत है साथ ही खुद को व्यस्त रखना भी। आखिर कहते भी हैं ना- खाली घर शैतान का। इस समय का सदुपयोग किस तरह से हो, यह मेरी पहली चुनौती है, दाल-रोटी तो जैसे तैसे चल ही जाएगी। फिलहाल चल भी रही है, हां-अपने परायों का पता लग जा रहा है। आज ही 22 जून को मैंने भड़ास 4 मीडिया पर आलोक तोमर को पढ़ा, कटु सत्य लिखने में उनका कोई सानी नहीं है। इस फील्ड में यानी हिंदी पत्रकारिता में फर्जी भगत सिंहो और चंदरवरदाई टाइप चाटुकारों की भरमार है करिएगा क्या. भाई लोग अपनी किस्मत की खा रहे हैं, लिखने पढ़ने की नहीं। समाज, देश के हित की चिंता से दूर। नया नारा है- अपना काम बनता, भाड़ में जाए संता। (संता की जगह आप जनता, पंता कुछ भी लिख सकते हैं)। हिंदी पत्रकारिता में दो दशक खपाने के बाद वास्तव में अब पछतावा हो रहा है। भोपाल में विश्व संवाद नामक एनजीओ चलाने वाले मेरे मित्र सचिन जैन ने बहुत पहले इस फील्ड की हकीकत जान ली थी, मैं अज्ञानी ठहरा, भांप नहीं पाया।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

राजशेखर नायर के बहाने

मेरे साथ हैं राजशेखर नायर। एक जमाना था जब उनकी उंगलिया केनवास पर आपको हू-ब-हू उतार सकती थीं, लेकिन बेरहम वक्त और कंप्यूटर देव ने उनसे यह कला लगभग -लगभग छीन ली। काम तो वे अब भी करते हैं, पर इसमें उन्हें वह मजा नहीं आता जो अस्सी -नब्बे के दशक में आता था, जब उनकी कलाकारी टाकीजों पर, बड़े- बड़े होर्डिंग्स पर दिखती थी । राजशेखर बताते हैं कि अब फ्लेक्स का जमाना है, तो पेंटिंग को पूछने वाले ढूदे नहीं मिलते। मुझसे उम्र में राजशेखर जी करीब १० साल बड़े हैं, और जब वह सर कहते हैं तो अटपटा लगता है, लेकिन मैं कहीं न कहीं खुद को उनमें खोजने लगता हूँ। एक अच्छे खासे पेंटर के मौजूदा दौर के लिए मैं किसे दोषी मानू , समझ नहीं पाता। वो तो कुछ कर भी ले रहे हैं ,मुझे लगता है कि पचास साल का होते -होते मैं तो शायद वह भी नहीं कर सकूँगा.उनकी वाइफ तो नर्स हैं, अपनी बीवी का रिश्ता रसोई से बाहर का कभी नहीं रहा। खैर मुद्दे पर आ जाऊं। राजशेखर जैसे कला के पुजारिओं के लिए हमारे समाज -सरकार के पास कोई व्यवस्था नहीं होना दुर्भाग्य पूर्ण है, साथ ही साथ लोककल्यान्कारी राज्य की परिकल्पना का माखौल भी। नई टेकनालोजी जीवन को सुंदर बनाने के लिए है अथवा मुश्किल बनाने के लिए, इसपर निति नियंताओं को सोचना होगा । दरअसल उदारीकरण के बाद तमाम उद्योग जो ठप हो गए , वहां काम करने वालों का हाल राजशेखर जैसा ही है। सोनभद्र में मैं डाला, चुर्क व मिर्जापुर की चुनार सीमेंट फेक्टरी की हालत देख कर सोचता था कि वक्त से बड़ा कोई नहीं होता। आज डाला और चुनार की चिमनियाँ फिर से धुवां उगलने लगीं हैं, जे पी उद्योग घराने कि कृपा से, लेकिन पुराने कामगारों के दिन बहुत नहीं बदल सके हैं। रांची में ट्रांसफार्मर बनाने वाली एक फैक्ट्री कब फिर से आबाद होगी, किसी को कुछ पाता नहीं। ऐसे मुद्दे मीडिया की चिंता में नहीं हैं, सो सरकार भी कान बंद किये हुए है। कभी कभार कोई पत्रकार लिख देता है, नहीं तो नहीं। गम्भीर कहे जाने वाले इलेक्ट्रानिक न्यूज़ चैनलों पर भी यह मुद्दे नहीं दिखते। राहुल गाँधी के लिए गरीब चिंता का विषय हैं, और मेरा अपना मानना है कि उनके प्रधानमंत्री बनने पर कुछ होगा। नहीं होगा तो नहीं होगा, मुझे क्या ? आखिर क्या मैंने ही ठेका ले रखा है (क्या करूं यार) फिलहाल अपनी दाल रोटी चल रही है। आज कि बात यहीं ख़त्म करता हूँ राजशेखर जी को किसी कवि की यह लाइन सुनाकर---
एक मुख्यमंत्री ने अपने मंत्रियों की बैठक बुलाई
जोर -शोर से कहा गरीबी हटाओ -गरीबी हटाओ
जब खामोश रहे उसके मंत्री तो उसने कहा
चलो -बोर मत हो यह मसला ही हटाओ।

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

मैं भी आपकी दुनिया में यारों

दोस्तों मैं भी ब्लॉग की दुनिया में कदम रख रहा हूँ। आपसे इसमें मदद की दरकार हर कदम पर रहेगी, आखिर अनपढ़ जो ठहरा.... अभी मुस्किल यह है कि चाह कर भी लम्बी -चौड़ी बातें नहीं कर सकता। वजह है में फोनेटिक की- बोर्ड यूज करता रहा हूँ और यहाँ किस फॉण्ट में कम्पोज़ कर रहा हूँ पता नहीं। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जिस तरह फोनेटिक की बोर्ड पर सहजता से कम कर लेता हूँ , इस पेज पर भी वैसे ही काम कर लूँ। उम्मीद है कि आप मित्रों में कोई मुझे इसकी जुगत भी बता देगा। अब थोडा सा परिचय अपने बारे में, भइया अपन का नाम सुरेश पाण्डेय है और हाल फिलहाल का पता ठिकाना है -पीपुल्स समाचार जबलपुर। यह कब तक रहेगा मैं नहीं जानता। एक बार फिर से इस शहर में शरण मिली है, लेकिन इस बार परिस्थितियाँ कुछ हट कर हैं, जैसा सोच कर आया था, सब वैसा ही नहीं है -बस यहीं मुझे किसी शायर की यह रचना याद आ गई - हर किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता, किसी को जमीं नहीं मिलती तो किसी कप आसमां नहीं मिलता। खैर कुछ कहने-सुनने के इरादे से इस मैदान यानी कि ब्लॉग की फील्ड में डटे रहने का इरादा है। आगे कि उपर वाला जाने। इन्सान सोचता कुछ है, होता कुछ है। स्मृतियों को सहेजने की कोशिश इस शहर में करूँगा।वैसे १४ दिसम्बर को यहाँ आने के बाद से सिवाय अरबिंद बिन्जोलकर के घर को छोड़ कर कहीं और नहीं जा सका। मुझे बहुत कुछ सिखाने वाले श्याम कटारे जी के घर तक जाने का मौका नहीं लग सका। धूप- अलाली इसकी वजह है, और उलाहने के भय से फ़ोन भी नहीं लगा पाता।