बुधवार, 7 जुलाई 2010

हौसला अफजाई के लिए शुक्रिया

शुक्रिया साथियों। अवसाद के इन दिनों में हौसला अफजाई के लिए। हर जगह चीजें तेजी से बदल रही हैं, पर नहीं बदली है तो अपनी किस्मत। योग्यता जैसी किसी चीज की हमारी इंडस्ट्री (प्रिंट या इलेक्ट्रानिक मीडिया) में पूछ परख होती तो जाने कितने गधे पंजारी न खा रहे होते और घोड़ों को घास के लिए तरसना पड़ता, करेंगे क्या। शायद इसी को प्रारब्ध कहते हैं। फिल्म संगम में दिलीप कुमार पर फिल्माया गया यह गाना आजकल मैं अक्सर गुनगुनाता हूं- मेरे पैरों में घुंघरू पहना दे तो फिर मेरी चाल देख ले, दुर्भाग्य से पैरों में घुंघरू पहिनाने वाला कोई नहीं है। जो घुंघरू बांध सकते हैं उन तक मेरी बदकिस्मती मुझे पहुंचने नहीं देती। एकाध जगह पहुंचा भी तो बात सीवी पोस्ट कर दीजिए, देख लेंगे, जैसी बातें हुईं। यहां एक प्रसंग का उल्लेख कर रहा हूं, इससे आप मेरी हालत का अंदाजा लगा सकते हैं। देश के एक बड़े मीडिया घराने में नौकरी के मेरे आवेदन पर विचार हुआ, चार दिन के टेस्ट के बाद कहा गया कि सीटीसी पर कंप्रोमाइज कर लूं, मैंने अपने उस शुभचिंतक पर जिसने मुझे चार दिनों तक ट्रायल का मौका दिलवाया था, पर ही सीटीसी तय करने का मामला छो़ दिया। मेरे शुभचिंतक ने अगली सूचना दी कि यार, दो हजार रुपये कम पर मान जाओ, मैं मान गया। फिर इसी शुभचिंतक ने कहा -पहली जून से ज्वाइन करना है, मैंने राहत की सांस ली, लेकिन पहली जून से चार दिन पहले ही मेरे इसी शुभचिंतक ने अवगत कराया कि यार, बड़े साहब ने मामला नए सिरे से देखने की बात कह दी है। बड़े साहब को मेरा मामला देखने का वक्त आज आठ जुलाई तक नहीं मिला। अब ताजी सचूना यह है कि बड़े साहब ने कहीं मेरा जिक्र उठने पर यह कह दिया-मुझे जंचा नहीं होगा। गजब है जिस महान संपादक ने ना मेरा काम देखा ना मेरा चेहरा, उसने मुझे यूं ही खारिज कर दिया, उसे मैं क्या कहूं। बीवी कहती है कि जहां तहां तुमने बता दिया था, उन्हीं में से किसी ने भांजी मार दी होगी, हो सकता है, वह सच कह रही हो.

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