मंगलवार, 22 जून 2010

दौर-ए आश्वासन

आज लगभग एक महीने बाद कुछ लिख रहा हूं। शायद एक घंटे में तमाम बातें सहेज नहीं पाऊं,लेकिन कोशिश तो करूंगा। सबसे पहले बता दूं कि 21 मई से 22 जून 2010 के बीच यात्राएं खूब हुईं।भोपाल, वाराणसी, अजमेर,लखनऊ, बरेली और नोएडा-दिल्ली। मकसद एक ही था-रोजगार पाना। दुर्योग कह लें या संयोग मनमाफिक नौकरी भर नहीं मिली, उपदेश और आश्वासन खूब मिले। एक बड़े अखबार के प्रभावशाली संपादक ने आश्वासन दिया कि दो दिन में कुछ ना कुछ जरूर हो जाएगा, वह दो दिन महीने भर से नहीं आया है, एक शुभचिंतक ने कहा, बस निशिंचत रहिए, हफ्ते भर में मामला सेटल हो जाएगा, मैं उस हफ्ते का इंतजार कर रहा हूं। एक यशस्वी संपादक की इस बात से जरूर ढांढस बंधा है कि वह तो आठ माह खाली बैठे थे। मेरे एक पत्रकार मित्र ने कहा, बंधु मैं तो 10 माह खाली बैठा था, लेकिन जब नौकरी की तो वहीं की जहां के लिए ठान ली थी। मैं भी सोचता हूं कि कहीं के लिए ठान लूं, पर ऐसा कर नहीं पाता। इसकी वजह परिवार की जरूरत है साथ ही खुद को व्यस्त रखना भी। आखिर कहते भी हैं ना- खाली घर शैतान का। इस समय का सदुपयोग किस तरह से हो, यह मेरी पहली चुनौती है, दाल-रोटी तो जैसे तैसे चल ही जाएगी। फिलहाल चल भी रही है, हां-अपने परायों का पता लग जा रहा है। आज ही 22 जून को मैंने भड़ास 4 मीडिया पर आलोक तोमर को पढ़ा, कटु सत्य लिखने में उनका कोई सानी नहीं है। इस फील्ड में यानी हिंदी पत्रकारिता में फर्जी भगत सिंहो और चंदरवरदाई टाइप चाटुकारों की भरमार है करिएगा क्या. भाई लोग अपनी किस्मत की खा रहे हैं, लिखने पढ़ने की नहीं। समाज, देश के हित की चिंता से दूर। नया नारा है- अपना काम बनता, भाड़ में जाए संता। (संता की जगह आप जनता, पंता कुछ भी लिख सकते हैं)। हिंदी पत्रकारिता में दो दशक खपाने के बाद वास्तव में अब पछतावा हो रहा है। भोपाल में विश्व संवाद नामक एनजीओ चलाने वाले मेरे मित्र सचिन जैन ने बहुत पहले इस फील्ड की हकीकत जान ली थी, मैं अज्ञानी ठहरा, भांप नहीं पाया।